कुछ ख़याल 6

दरमयान हमारे ये दूरी कैसी आ गयी,
कि अब मुलाक़ात 
सिर्फ ख़्वाबों में होती है!

~

वो जो मुलाक़ात ज़िन्दगी से हुई
ज़िन्दगी कुछ हैरान सी रह गयी

~

मंजिल की फ़िक्र तो वो करें
जिन्हें सफ़र से प्यार नहीं 

~

हमें इख्तियार नहीं अपने आप पर
आप वक़्त की बातें करते हैं 
मैं खुद का भी नहीं हूँ
आप अपनी बातें करते हैं

~

वक़्त ने बाँध रखा है ज़िन्दगी को
पता नहीं कितना जायज़ है ये 
जो हम बाँध दे कविता को वक़्त के बंधन में 
हरगिज़ नाजायज़ है ये

~

हैं कहानियाँ बहुत हमारे पास
ये तेरा मेरा अफसाना है
हमें छोड़ दो इन गलियों में
कि तुम्हे घर भी जाना है

~

ख़ामोशी

ख़ामोश ही रहने लगे आजकल
अपने घर में हम,
दीवारों को तो अब भी
आवाजें सुनने की आदत है

तुम आ जाओ तो कुछ बातें करें!

बुकमार्क

वो जो गुलाब का फूल
कभी दिया था तुमने,
उसकी खुशबू है 
अब तक मेरी जिंदगी में-
बुकमार्क बना रखा है उसे

तुम अब भी मेरे पास हो!

सिविलाइज़ेशन

क्यों बसा रखा है शहर?
बसे हुए से गाँव हैं,
बसे हुए से बस्ती क्यों कर?

जब हर गली कोई खड़ा है
उजाड़ने को घर?

मर्द

मुझे शर्म आती है
कि मैं मर्द हूँ
जब सुनता हूँ
एक मर्द ने
सरेशाम एक लड़की का
रेप किया...

रौंदता रहा वो उसको
सिर्फ इसलिए कि
वो मर्द था

कर तो अब भी कुछ नहीं पाता,
बेहतर होता
कि मैं औरत ही होता...

इस शर्म से तो बच जाता!

दोस्त

कभी कभार ऐसा होता है
कि बेतुकी बातें करता रहता हूँ तुमसे
सिर्फ इसलिए कि तुम्हारी आवाज़ सुनता रहूँ
एहसास होता रहे कि तुम मेरे पास हो...

महफूस रखना चाहता हूँ दोस्ती,
इसलिए झगड़ता भी हूँ
मनाता भी हूँ तुम्हें
इसी बहाने कुछ दूरियाँ मिट जाती हैं हमारी
कुछ और जान लेते हैं एक दुसरे को हम

यूँ तो कुछ बचा नहीं जानने को
बस काफी है जान लेना कि
इस मतलबी दुनिया में
एक दिल तो है
जिसके अन्दर मेरे लिए
एक एहसास है अब तक...

दोस्ती है अब तक!

बच्चे

रास्ते में मिल जाते हैं
कुछ नादाँ बच्चे
सुबह सुबह ऑफिस जाते वक़्त

बात हो जाती है उनसे कभी कभी
खुद की एक वोकेबोलरी है उनकी-
ता-तक-धत-ऊ-हा-हा-
ये बड़े पेचीदा शब्द हैं
उनकी दुनिया में
बहुत से भाव व्यक्त करते हैं वो
अपनी भाषा में!
बिना किसी सरहद-समाज के
पूरी दुनिया ये भाषा बोलती है!

तुम बड़े बेवकूफ थे जो दुनिया को
भाषा-समाज-सरहद के नाम पर बाँट दिया!

जिल्द

एक रोज़ मुलाक़ात की थी
ख्वाब में तुमसे

अलसाई रात में
बहुत देर साथ बैठे थे हम
उसी क्लास रूम में
एक बेंच पर
जहाँ कभी मिले थे पहली दफा,
टीचर के आने तक
बात भी किया
मेरे एक चुटकुले पर
हँसी भी थी तुम

अब उस ख्वाब को
महफूस कर लिया है-
जिल्द चढ़ा दी है उस पर!

एक गीत सुनाता हूँ!

गाता हूँ, गुनगुनाता हूँ
गीत तुमको सुनाता हूँ

लिख रही हैं कुछ तुम्हारी पलकें
संग इनके गीत एक बनाता हूँ

बहुत दिन से रो रही थी आँखें
अब तो मैं भी मुस्कुराता हूँ

जो ज़िन्दगी का दिया बुझने लगता है
मैं ख़ुद अपना दिल जलाता हूँ

रात कभी बेकार होती नहीं मेरी
मैं ख़्वाबों के तीर चलाता हूँ

जो ना हो तुम मेरे पास तो क्या हुआ
मैं अरमानों के दरवाज़े खटखटाता हूँ

चुप रहो, कुछ मत कहो-
"कुछ देर के लिए मैं बस एक सन्नाटा हूँ"

आतिश

तारों के दिए से
हमने अपना जहाँ सजा लिया
आकाश में देखी आतिश
और दिल को भी दिखा दिया
कुछ यादें ताज़ा कर ली बचपन की

चलो, ये दिवाली भी अच्छी रही!

कुछ ख़याल 5

सड़क पर लेटा है
जीभ निकला है उसका
हड्डियाँ दिखती हैं...

वो कुत्ता है या इन्सान
ज़रा पता करो!

~~

जुस्तजु भी नहीं
आरज़ू भी नहीं
ना ख्वाब,
ना दस्तक ख्वाब की


यूँ भी तो ज़िन्दगी हसीन हो सकती है!

~~

कुछ तो यूँ हुआ आज
अपने क़दमों की आहट पर
मैं हैरान हो गया

रास्ते ख़ुद ही बनाने की ज़िद है उनकी! 

~~

रात कुछ ऐसी थी
मैं खामोश ही था

धड्कनें बोलती रह गयी!

~~

उड़ान

एक ख़्वाहिश है
एक सपना है

एक आसमां हो मेरा-
जहाँ के बादल मैं सजाऊँ
जहाँ के तारें मैं जलाऊँ
जहाँ बारिश हो तो मेरी मर्ज़ी से
जहाँ हवा को रुख मैं दिखाऊँ

एक ख्वाहिश है
एक सपना है...

खुदा का फ़रमान

उधर अँधेरा बहुत है-
कुछ इलाज करो
छिड़क दो कुछ बूँदें सूरज की,
तारों से कहो की जल जाएँ,
अरमानों के दिए जलाओ,
ख़ुद भी जल जाओ...

आह...
वो ज़िन्दगी है
उधर अँधेरा ही रहने दो!

ज़रूरत

लुट रही है अस्मिता किसी की
रात घुप्प अँधेरे में,
और मैं कविता के धागों से
उसके कपड़े के चिथारों को
बाँधने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

रोज़ चौराहे पर लाल बत्ती होते ही
दौड़ते बचपन को
कविता की दो पंक्तियों में
भूख से लड़ने की ताकत
देने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

पिछड़े गाँव के किसी खेत में,
रोज़ मेहनत करते मजदूर के हाथों को
कुछ देर के लिए आराम करने को कह रहा हूँ
उसे कुछ देर सोने को कह रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

सुनसान गली के आखिर में,
किसी मकान के कोने वाले कमरे में,
उस छोटे से खटिये पर-
सालों से चुप, 
उस बच्ची के आसुओं की
आवाज़ बनने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

बाज़ार के बढ़ते भाव से
चश्मे के पीछे की
चालीस साल पुरानी आँखों को,
काँपते हाथों को,
अपने बच्चों के पूरे ना हो सके ज़रूरतों के बोझ को-
उस पंखे से लटकते, छटपटाते टांगों को
अपनी कविताओं से जकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ-
मुझे तुम्हारी भी ज़रूरत है!

एक पल

ज़िन्दगी के उफ़ान भरे रास्तों और ढलानों से 
गुज़रते उम्र के हर पन्ने को 
उड़लते-पलटते देखने की ख्वाहिश 
मेरे दिल में फिर से मचल रही है 

हवा के साथ गुज़रते ,
गालों को सहलाते 
वक़्त के तेज़ कदम
फिर से मेरे साथ 
दो पल के लिए रुके हैं 

अब,
जब नादाँ दस्तक हौले से 
मेरे घर के दरीचे पर आई 
तब सिर्फ दरवाज़ा नहीं खुला,
खुला नए सवेरे का रास्ता 
जो होकर गुज़रा पुराने यादों के साए से

कौंधते हुए अचानक से 
दिल पर दस्तक दे गए कई पुराने साथी,
कुछ पुरानी ख्वाहिशें फिर से जिंदा हो गयीं|

कुछ ख़याल 4

यादों के सहारे दीवारें अब भी खड़ी हैं,
मकां तो कब के ढह चुके!

*

बहुत देर देखने के बाद
ऐसा लगा मुझे 
वो खूंखार बहुत है जानवर 

बस नाम उसका किसी ने
आदमी रख दिया है!

*

ना मैं अजीब हूँ, ना तुम अजीब हो
अजीब कुछ हालात थे,
बेहतर हम पहले ही थे
जब एक दूसरे से अनजान थे

*

मैं इतना हसीं तो ना था

तेरी बाँहों का असर तो देख
मैं भी हसीं लगने लगा!

*

आँखों पर...

अगर खेलना आता तो मैं भी खेल लेता उसके साथ
नादाँ खिलाड़ी हूँ,
बस वो खेलता रहता है मुझसे,मेरी आँखों से...

मेरे आँसू बहुत बदमाश हैं!

*

झाँकती है वो आँखों के झरोखों से
देखती है, बातें करती है

उसकी आँखें जिंदा इंसान हैं! 

*

सर्द बहुत हैं रातें
बर्फ सी जम गयी है पलकों पर

इन आसुओं को अब पिघला भी दो!

*

ख़ामोश निगाहें बहुत बोलती हैं,
बिलखती रहती हैं हर शब्...

इनका कोई दोस्त भी नहीं!

कुछ ख़याल 3

ना सुना, ना देखा, पर लोग कहते हैं,
भगवान् बोलते हैं तो आवाज़ गूँजती है 

हर रोज़ खुदा बनता हूँ मैं खाली कमरे में!

*

एक परत चादर की उठा दो,
आज बेलिहाफ कर दो दुनिया

हम भी देखें दुनिया कैसी है!

*

कुछ देर तक वो भी चुप था,
मैं भी ख़ामोश रहा पल भर

फिर हमने एक दूसरे को दोस्त कह दिया!

*

शाख से लटकते पत्ते को टूटते देखा,
फिर किसी की पहचान मिटते देखा 

या नयी पहचान बना रहा है कोई!

*

दो पल ठहरने दो,
साँस भी लेने दो इसे 

ज़िन्दगी है, बहुत लम्बा सफ़र है इसका

*

एहसान

अजीब सा लगने लगा मुझे अब तो,
के बड़ी तंगदिल सी हैं राहें
इन मजहबों की

मुझे नास्तिक बना कर
बड़ा एहसान किया
तेरे भगवान् ने!

बुज़ुर्ग

उस इन्सान की शक्ल पर हैं
झुर्रियाँ कई सारी
वो इंसान तारीख़ की जिंदा किताब है...

हर ज़ख्म सियासत का दर्ज है
उसकी भवों के ऊपर-
माथे पर कहीं

आँखों के नीचे गाल पर
गहरा सा अँधा कुआँ है,
ख़ुदकुशी की थी १९१९ में
कई लोगों ने यहाँ-
बाग़ है जलियाँवाला का ये!

झुर्रियाँ कई सारी हैं
उस इन्सान की शक्ल पर!

गुफ़्तगु

ज़िन्दगी बड़ी अजीब सी
लगने लगी है
ऐसा तो पहले होता ना था,
कुछ किताबें
इसने भी पढ़ ली होगी

आजकल
सवाल बहुत करती है...

तुम्हारा काम

दिक्कत इस बात से नहीं
कि तुम मारते हो दंगों में,
वो तुम्हारा काम है...
तुम करोगे ही,
मारोगे ही, मरोगे ही,
किसी को बेवा करोगे,
किसी को अनाथ बनाओगे
छीनोगे किसी का वालिद...
धर्म सिखाता ही यही है

दिक्कत इस बात से है,
उसे क्यों कर मारा तुमने
जो जानता भी नहीं-
मरना क्या होता है!

मुलाक़ात

मैं तन्हा महसूस करता हूँ
बच्चे की तरह डरने लगता हूँ

महसूस करता हूँ तुम्हारी कमी
और एक चाहत सी जगती है
तुमसे मिलने की...

और ना जाने कहाँ से
पलक झपकते ही
तुम आ जाते हो मेरा
हाथ थामने...
...इस वीरान अँधेरी रात में!

सर्दी

इतना आसान तो नहीं होता
सिहरती रात में जागना,
ठंड से लड़ना मुश्किल होता है

जब फैलती है रात
तो जिस्म सिकुड़ता जाता है

बस
जला लेता हूँ पुरानी यादों को
और उस अलाव को
सेंकता रहता हूँ रात भर
जगा रहता हूँ रात भर

तेरी मासूमियत

बारिश की शरारत भरी बूंदों में
वो चलना तेरा मेरे साथ

तेरे लटों का भीगना
आँखों को मीचना तेरा...
मासूम बच्चे की तरह
अपने आप को
बूंदों से बचाने की
जद्दोजहद करना...
ज़मीन पर सरपट भागते पानी से
दौड़ लगाने की कोशिश में
अपने आप को और मासूम बनाना!

पत्ते से गिरते
धूल भरे बूंदों से
अपने गाल को पोछना,
कीचड़ को नासमझी में खुद ही
अपने आप पर उछालना...

और फिर पलट कर कहना,
"जल्दी आओ न!"

बचपन के लिए...

ना दिखा मुझे वो हसीन लम्हे फिर से
ज़िन्दगी ऐसे भी खुशगुवार लगने लगी है 

क्या वो बचपन था या हसीन तरन्नुम कोई?
ज़िन्दगी अब बड़ी बेसाज़ लगने लगी है!

*

एक मासूम बच्चे सी है ज़िन्दगी,
खुद सवाल करती है,
खुद जवाब खोजती है...

अपने आप से ये हैरान है आजकल!

*

इस चौराहे को देख कर ख्याल आया
अभी तो यहीं था, 
जाने किधर गया

मेरा बचपन!

आइने के लिए...

आइना देखता हूँ 
तो आइना हो जाता हूँ मैं...

देखता हूँ
एक से ही दो चेहरे
आइने के अन्दर- बाहर,
दोनों के रंग एक से हैं,
एक सी ही लगती है 
दोनों की शक्सियत 

फिर से आँखों को लगता है
धोखा हुआ!

*

इस घर में मैं अकेला तो नहीं
एक आइना भी है

उस तरफ भी कोई रहता है!

*

मैं हँसता हूँ तो हँसता है ये
मेरे रोने पे रोता भी है

ये आइना है या हमदर्द कोई?

*

आज वो मुझसे रूठा सा था,
मेरे चेहरे को पढ़ भी न सका

जो मेरे रोने पे रोता था,
आज हंस पड़ा...

आइना भी आज इंसान नज़र आया!

चोर

जब ज़मीन भी बेगानी हो गयी
मेरे नस्ल के खाते से,

चावल के दाने से
हक भी छीन लिया उन्होंने
जिनके लिए
हम चावल उगाते थे,

मेरी बेटी का निवाला
जब पहुँच ना सका
उसके मुँह तक

तब,

मैंने उसके घर का रुख किया
जहाँ से सोचा था
खुशियाँ बीन कर लाऊंगा

जैसे ही अपने हक पर
हाथ रखा,
'चोर- चोर- चोर'
नाम रख दिया लोगों ने मेरा!

(नीलमा सरवर- पाकिस्तानी शायरा- के लिए)

कुछ ख़याल 2


कभी हिन्दू, तो कभी मुस्लिम 
कभी कम्युनिस्ट बनती रही

चौराहे की बत्ती धर्म बदलती रही!

*

वो कैसा तूफ़ान उठा था
मेरी पहचान भी उड़ा ले गया

क्या अब भी मुझे पहचानोगे?

*

बहुत उदास सा लगता है आजकल
मोहल्ले का वो बड़ा पुराना पेड़

पतझड़ में कुछ नए पत्ते गिर गए

*

एक सुहागिन की बिंदी है वो,
खोजती है अपने शौहर को

चौराहे की लाल बत्ती थी, बुझ गयी!

*

बंद हो जाएँगी धर्म की खोखली किताबें

जब लैला की मांग सिन्दूरी होगी,
जब किसन निकाह रचाएगा!

*

अब नहीं कोई दीवार सरहद पर,
टूट गयी दीवारें, गिर गए पत्थर

गिरी दीवारों के नीचे आवाम की लाश दबी है!

*

मैं भी इंसान समझता हूँ खुद को,
तुम भी अपने आप को इंसान कह लो

ये खुशफ़हमी बहुत लोगों को है आजकल!

*

दंगे

मेरे खुदा का मिजाज़
बिगड़ा हुआ है,
लड़ता रहता है आजकल
तुम्हारे भगवान् से


हम जिसे परवरदिगार समझते थे,
वो भी इंसान निकला!

मेरा धर्म

अगर तुम मुसलमान से नफरत करते हो,
तो मैं मुसलमान हूँ

अगर नफरत है तुम्हे हिन्दू से,
तो हिन्दू हूँ मैं

नहीं पसंद अगर कोई सिख,
तो सिख समझना

इसाई या ज्यूू
समझ लेना मुझे अपनी समझ से

क्योंकि तुम इंसान से नफरत करते हो,
और इंसान हूँ मैं

माँ

माँ..
अब भी तुम्हारी हाथ पकड़ कर
सोने का मन करता है,
अब भी तुम्हारी डांट-डपट
सुनने का मन करता है,
मन करता है
तुम्हारे साए में सोता रहूँ,
फिर से दो साल का
"छोटू" बन जाने का मन करता है...

तुमसे छिप कर क्रिकेट खेलने जाता था,
तुम पीछे पीछे आती थी बुलाने मुझे
चाहता हूँ फिर से तुम मुझे बुलाने आओ,
भाग कर क्रिकेट खेलने का मन करता है

बहुत मुश्किल से समझ आती है
मुझे किताबों की भाषा,
तुम्हारे मुँह से लोरी सुनने का मन करता है

थक चुका है
मेरा ये कद बढ़कर,
तुम्हारी गोद में सामने का मन करता है...

तुम एक कविता हो

तुम बस एक कविता हो
जो लिखी हुई है
आसमान में
बादलों के पीछे कहीं...

हर रोज़
सूरज के साथ जगता हूँ मैं
तुम्हे पढने के के लिए,
शाम होती है
तुम्हारे ही अल्फाजों
को देखते हुए...

हर रात
चाँद एक नयी नज़्म बुनता है तुम पर,
आसमान से तारें चुन कर
सजाता है नज़्म...

सुबह होती है,
फिर से देखता हूँ
पूरी काएनात तुम्हारी
पलकों पर...
एक ही बार में!

चाँद- सूरज ने
बहुत मेहनत कर ली,
आओ, अब हम दोनों
बैठ कर बातें करें!

अकेलापन

जब कभी फोन बजता है
तो,
दो पल के लिए
ख्याल आता है
किसी ने याद किया....

पर जब फ़ोन आता है किसी
ऑफर के लिए,
कॉलर ट्यून के लिए,
कॉल सेंटर से किसी अजनबी की आवाज़ सुनता हूँ
तो लगता है
उस तरफ भी कोई
बैठा है
इंतज़ार में किसी के...

वो भी मेरी तरह
अकेला ही होगा शायद

उससे ही बात करके अकेलेपन से लड़ लेता हूँ कभी कभी !

एक किरदार

यूँ तो ऐसा भी किया हमने,
कुछ लम्हात हँस कर देख लिया
मुस्कान बिखेर ली कुछ देर...

फिर एहसास हुआ
मेरी साँसों पर
पहरा लगा रखा है किसी ने...
मेरी ख्वाहिशों को
ग़ुलाम बना रखा है किसी ने…

फिर चुप ही रहा मैं !

तेरी परछाई अब मेरी साँसों को हैं बेक़रार करते

तेरी परछाई अब मेरी साँसों को हैं बेक़रार करते 
ग़र जिंदा होते तो सिर्फ तुमसे ही प्यार करते 

दरवाजों को कहो आँखों का इंतज़ाम कर लें 
मुझे तो इक अरसा हुआ तेरा इंतज़ार करते 

ख़ाक में मिला कर मेरी हस्ती को गए थे तुम 
सोचा था तेरे साथ ही ज़िन्दगी ख़ाकसार करते 

नहीं ऐसा भी कि मैं अंजान हूँ अजनबी हो तुम
बातें ऐसे करते हो जैसे हम पहली बार करते 

उस लम्हे में कुछ महसूस तो हमने किया ज़रूर था
उस लम्हे का इस्तेमाल करते हो मुझे शर्मसार करते

आज देखा उस खँडहर को जहाँ कभी मिले थे हम,
तुम तो ख़ामोश हो ,बेहतर होता उस से ही बात करते

कुछ ख्याल 1

कभी कभार सोचता हूँ 
वक़्त को जकड़ लूँ
मुट्ठी में ...

कमबख्त, निकल जाती है 
हाथों से 
हवा के माफ़िक!

*

हर ज़ख्म तुमने ही दिया 
हर दर्द का रिश्ता है तुमसे 

तुम यूँ तो हमदर्द नज़र आते हो!

*

बस एक ग़ुबार सा उठा है अभी
रात के अँधेरे में दिखता भी नहीं

दिख तो जायेगा ज़रूर कविता में !

*

बहुत दिन हुए
लबों पर मुस्कुराहट आयी नहीं 
कुछ ऐसा करते हैं ...

हँसते हैं!

*

क्यों ना ऐसा करूँ मैं ,
तुम्हें याद कर लूँ ...

दो पल के लिए साथ तो होंगे हम

*

अब सोचता हूँ 
दीवारों को दोस्त बना लूँ ...

कभी तो रिहा करेंगे मुझे !

*

मोहम्मद

आज दिल कुछ ऐसा किया कि
फारसी की वो किताब पढ़ लूँ
समझ लूँ कहना क्या चाहते थे तुम
बात कर लूँ पन्नों से
उनकी ही ज़ुबान में

फिर , अपनी भी कमियाँ याद आ गयी!

किलकारी

तुम्हारी गोद में सो तो नहीं पाता,
पर तुम्हारी हाथ का बुना
स्वेटर पहन लेता हूँ ...

...पहन लेता हूँ
तुम्हारी परछाई फिर से ,
तुम्हारे साये में फिर से
पलने लगता हूँ ...

...सुनाई तो देती होगी तुम्हे
मीलों दूर से आवाज़

...मेरी किलकारी की !

एक दिन

सोचता हूँ एक दिन
उसके साथ गुज़ार लूँ...

उसकी भी कुछ बातें सुन लूँ ,
सुना दूँ कुछ अनकही बातें उसे

झगड़ लूँ, लड़ लूँ,
दो लम्हा प्यार कर लूँ

बहुत दिन हुए उससे बात नहीं की
दूरियाँ बढ़ गयी हैं दरमयां,

कुछ दूरियाँ मिटा लूँ

सोचता हूँ
एक दिन
अपने रूह के साथ गुज़ार लूँ !

देख लेता हूँ YouTube पर तुम्हे

अब तो देख लेता हूँ
YouTube पर उसे

देख लेता हूँ अंकल स्क्रूज को
जब मन करता है,
मुलाक़ात हो जाती है
अलादीन तुमसे भी

ऐसा लगता है
घड़ी की बाहें मुड़ गयी हैं
उल्टी दिशा में

लेकिन चाह कर भी
वो मासूमियत ला नहीं पाता
जिसके साथ मुलाक़ात होती थी तुमसे
ब्लैक एंड वाईट टीवी पर

मुझे तब भी तुम
बहुत रंगीन नज़र आते थे...

सन्डे के सन्डे
सुबह सुबह
देखता था तुम्हे

इंतज़ार के बाद आते थे तुम!

कभी कभार यूँ भी होता था
गुल हो जाती बत्ती,
फिर भी बैठा करते थे
अपनी रंगीन सी ब्लैक एंड वाईट टीवी के सामने

अब तो देख लेता हूँ
YouTube पर तुम्हे...

फिर भी...

चाँद का मुँह टेढ़ा है!

चाँद का मुँह टेढ़ा है!
-मुक्तिबोध

कुछ टेढ़ा सा तो मुँह है चाँद का!

कभी रहा होगा वो भी
एक हिस्सा इस जहाँ का

ऊब सा गया होगा
जैसे ऊब गए हैं
दो -चार लोग यहाँ और
हज़ार -दस हज़ार
लाख -कड़ोड़ लोग यहाँ और

चला गया छोड़ कर
चाँद जहाँ को

दूर बैठा है
मुँह टेढ़ा है

आराम से सो रहा है
आज कल चाँद
शायद देखना पसंद नहीं उसे
दुनिया को

ऊब गया है!

जब कभी दिखते होंगे हम उसे
मुस्कुराता होगा
हँसता होगा पागलों की तरह
कर लेता होगा मुँह टेढ़ा

चला जाऊंगा मैं भी कभी चाँद पर
जल्द ही कदम रखूँगा चाँद पर
कर लूँगा मैं भी मुँह टेढ़ा

हसुँगा पागलों की तरह मैं भी
देख कर रेंगते हुए कीड़ों को यहाँ

पर मेरी हँसी सुनेगा कौन वहाँ?

तुमसे कुछ कहना था

तुम्हे ख़बर भी ना कर सका,
कि तुम्हारी हर मुस्कान के पीछे
दुआ मेरी थी

तुम्हे ख़बर भी ना कर सका
कि हर लम्हात जो ख़ुशी
का एहसास हुआ था तुम्हे
वो खुदा ने मंज़ूर
की थी दुआ में मेरी

तुम्हे ख़बर भी ना कर सका,
कि मैं लम्हा लम्हा
तुम्हारे पास ही था-
शाम की ठंडी पुरवाई में
जब तुम्हारे गालों को
हवा हौले से छू कर निकल जाती थी,
तब तुम आँखों को मीच लेते थे
जब तुम मुस्कुराते थे
नयी फिल्मों के गीत गुनगुनाते थे
सुबह उठ कर फिर से सो जाते थे
जब थक जाते थे
और नींद आ जाती थी तुरंत
गिरते ही पलंग पर...

उस नींद में सपने
मैं ही तो दिखाता था

कभी तो देखा होगा,

कभी तो महसूस किया होगा...

मासूम सा रिश्ता

आजकल सुबह सुबह
मुलाक़ात हो जाती है
उस शैतान से फ़रिश्ते से!

ऐसा होता नहीं कभी की मुझे जाने दे
घर से वो बिना कुछ सवाल किये
पूछ लेता है बार बार
"कहाँ जा लहे हो ?
क्यों जा लहे हो ?
हाथ में क्या है तुम्हाले?
ये ताला क्यों लगा लहे हो ?"
कभी कभी तो हँस कर बाय बाय भी कर देता है

बहुत मासूम हैं सवाल उसके अभी
कुछ सालों में बड़े पेचीदा से हो जायेंगे यही सवाल!

नाम उसका लिखने की ज़रूरत तो नहीं...
अभी उसके नाम से कोई मतलब निकाल लो
इसकी भी ज़रूरत नहीं

बस ऐसे ही है कोई-
पड़ोसी-
मासूम सा,
जो आ जाता है बिना बुलाये
घर मेरे

कल आ गया था बैट लेकर झगड़ने को
लेकिन हर बार ठहाका लगा कर हँस ही देता था
जब मारता था मुझे

ऐसे ही रिश्ता सा बन गया है उससे,
कुछ रिश्ते बन जाते हैं
खुद-ब-खुद

उन्हें "फोर्मालिटी" की ज़रूरत नहीं होती!

कौन है वो?


वो कौन है ?

तुमने कई बार कहा मुझसे,
उसने ही बना डाली है ये दुनिया 
इज़ाद किया है उसने कई बेवकूफियों को
तुमने कई बार मुझसे कहा है

मैं आज तक समझ नहीं पाया
वो कौन है?

वो कोई साइंटिस्ट है ?
जिसने हर लम्हात नयी चीज़ों को जन्म दिया
वो देता रहा रूप अपने ही ख्यालों को,
सोच भी ना सका की
वो ख्याल सिर्फ ख्याल ही होते तो बेहतर रहता

वो कोई accountant है ?
जिसने बना रखा है बही-खाता
हर धर्म के व्यापारियों का,
जो हिसाब रखता है
हर साँस का
जो देता नहीं मुफ्त की खुशियाँ कभी

वो कोई सलेस्मैन है ?
जो बेच रहा है अपने प्रोडक्ट को बारी-बारी
इंसानों के हाथ
बेच रहा है अपनी बनाई ज़मीन को
अपने बनाये आसमान को
अपने ही बनाये इंसान को
मार्केटिंग भी आती है उसे अच्छे से!

या बैठा कोई राइटर है
जो लिख रहा है एक लम्बा उपन्यास...
अपने ही ज़िन्दगी के ऊपर-
वो उपन्यास जो कोई पढ़ नहीं पायेगा
सिर्फ आंसू ही दिखेंगे वहाँ
अपना ही मज़ाक उड़ाता रहता होगा वो
एक बहुत ही अजीब सा मज़ाक
जहाँ सभी मज़ाक का हिस्सा हैं...

बहुत ही सिनिकल सा है वो!

लेकिन पता नहीं
कौन है वो?

मै


अब मै छंद मुक्त हूँ!

भाषा -विहीन
दिशा -विहीन
अब सिर्फ एह्सासों का झुण्ड हूँ
अब मै छंद -मुक्त हूँ

तृप्त सा अतृप्त
अतृप्त सा तृप्त
अब मै बुझी सी जागी
जागी सी बुझी प्यास हूँ

इकतारे से सितार की
सितार से इकतारे की
बिखरती साज़ हूँ
अब खामोश आवाज़ हूँ

छंद भी हूँ
गद्य भी हूँ
कविता -कहानी -उपन्यास हूँ

अब बस एक शब्द हूँ
शब्द -विहीन हूँ
अब छंद -मुक्त हूँ!