जो कुछ भी है सीखा यहाँ वो भुलाना चाहता हूँ

जो कुछ भी है सीखा यहाँ वो भुलाना चाहता हूँ
अगर मैं हकीक़त हूँ, तो ख़्वाब होना चाहता हूँ

मेरे अन्दर का मुसलमान हावी मेरे हिन्दू पर
मेरा हिन्दू लड़ता है,ये फ़साद रोकना चाहता हूँ

चिंगारियाँ जला दें इंसानियत को-नहीं माँगता
जो बुझा दें उन्हें मैं तो वो आब होना चाहता हूँ

नफ़रत उससे जो करे मेरे नाम का इस्तेमाल
मैं कौन हूँ? क्यूँ हूँ? मैं तो हवा होना चाहता हूँ

जद्दोजहद-परेशानियाँ-दर्द- कई गुना बढ़ चले
ख़तम करो सब! मैं अब दवा होना चाहता हूँ

हिसाब-किताब

एक काम करो,
जो तुम इंसान को
चुन चुन कर
इंसान कहते हो-
कह लो

एक काम करो.
जो तुम
किसी को
भगवान् मानते हो-
मान लो

जो बचे-खुचे चीथरे हैं मांस के,
हम उन्हें मिलकर जानवर कहेंगे

जो इंसान कभी
कुचलेगा जानवरों को,
हम सभी एक साथ
कुचलेंगे

जो भगवान् कहेगा
टुकड़े देने को उसे,
हम उसे टुकड़े दे देंगे

इंसानियत बची रहेगी
दुनिया चलती रहेगी!

ख़्वाबों के दरीचों पर नाम लिखा है

ख़्वाबों के दरीचों पर नाम लिखा है
हमने खुद अपना अंजाम लिखा है

ना कर रस्साकशी,छेड़ ना लाशों को
जिंदा हैं वहाँ जहाँ शमशान लिखा है

आवाज़ निकल पड़ी उस सूरत से
जिसको तुमने बेजुबान लिखा है

सब कहते हैं वो मर गया है, या रब!
उसने तो कातिल का नाम लिखा है

जिसको कह रही है पूरी कौम पागल
उसके नाम के आगे विद्वान लिखा है

चिट्ठी डाली है खुदा को, माँगा है हक
अपने ही मौत का फरमान लिखा है

कौन सा दिन है, ये क्या साल है

कौन सा दिन है, ये क्या साल है
मुझे क्या पता मेरा क्या हाल है

तुम मेरे हो यही समझता था मैं
मैं कौन हूँ, ये अब तेरा सवाल है

तह तक जाऊं तो मैं कैसे जाऊं
रुकावट है, ज़हन में जंजाल है

दौलत तो कुछ नहीं है पास मेरे
एक ग़ज़ल है, हालत फटेहाल है

भीगा हुआ हूँ बौछार-ऐ-ग़म से
मुद्दा ये कि मेरा नाम निहाल है

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जब हौले से छूती है तो कहती है हवा मुझसे
तू है तो खुदा कौन है? अब ज़रूरी ये बवाल है!

ग़ालिब मिला था

...और,
आज फिर
ग़ालिब मिला!

हमेशा की तरह
ज़िंदगी से मोहब्बत
करता हुआ-
उलझनों से
घिरा हुआ,
उलझनों से
लड़ता भी,
उलझनों का
मजाक भी उड़ाता,
आज फिर
ग़ालिब मिला!

दायें हाथ में
प्याला लिए
एक नज़्म सुना रहा था मुझे,
हमेशा की तरह

मेरी आँखों में
देख कर
फिर बोल पड़ा,
"हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी
कि हर ख्वाहिश पे दम निकले"

सालों पुराना ये सिलसिला
दुहरा गया

सालों से मैं चुप रहा

आज बोल पड़ा,
"उस एक ख्वाब का क्या,
जिसकी खातिर उम्र भर
की नींद गिरवी रख आया हूँ?"

ग़ालिब मुस्कुरा रहा था...