और क्या कमाता मैं?

कुछ पल साथ बिताये थे,
गपशप करते रातें काटी थी-
जब तुम चाय की चुस्कियाँ लेते थे
रात ढाई बजे

मोटर साइकिल के पीछे बैठ कर
दुनिया की सैर हो जाती थी
जलेबी सी शहर की गलियाँ,
उनसे भी पेचीदा ज़िन्दगी के रस्ते-
सब पर भारी
अपने दो कौड़ी के चुटकुले!

वो जो कभी एग्ज़ाम में फेल हुए,
तुम समझाते थे
साथ में सुट्टा पीते
-वो जो दुनिया को जलाने की ज़िद थी मेरी
सुट्टे की चिंगारी से,
तेरे कहने पर
आज तक दुनिया को छुआ भी नहीं-
उसे उसके ही हाल पर छोड़ दिया

और,
वो एक चेहरे के साथ शाम बिताना
उसके लटों से खेलना
हाथों को मोड़ना
भीड़ में हौले से चुटकी काट कर मुस्कुराना...
और ये सब तुझे बताना

सब कुछ पन्ने दर पन्ने दर्ज करता गया
कुछ ऐसी थी ज़िन्दगी की कमाई
और उस रोज़ तुमने पूछा-
"महीने का कितना कमा लेते हो ?"