तेरी मासूमियत

बारिश की शरारत भरी बूंदों में
वो चलना तेरा मेरे साथ

तेरे लटों का भीगना
आँखों को मीचना तेरा...
मासूम बच्चे की तरह
अपने आप को
बूंदों से बचाने की
जद्दोजहद करना...
ज़मीन पर सरपट भागते पानी से
दौड़ लगाने की कोशिश में
अपने आप को और मासूम बनाना!

पत्ते से गिरते
धूल भरे बूंदों से
अपने गाल को पोछना,
कीचड़ को नासमझी में खुद ही
अपने आप पर उछालना...

और फिर पलट कर कहना,
"जल्दी आओ न!"

बचपन के लिए...

ना दिखा मुझे वो हसीन लम्हे फिर से
ज़िन्दगी ऐसे भी खुशगुवार लगने लगी है 

क्या वो बचपन था या हसीन तरन्नुम कोई?
ज़िन्दगी अब बड़ी बेसाज़ लगने लगी है!

*

एक मासूम बच्चे सी है ज़िन्दगी,
खुद सवाल करती है,
खुद जवाब खोजती है...

अपने आप से ये हैरान है आजकल!

*

इस चौराहे को देख कर ख्याल आया
अभी तो यहीं था, 
जाने किधर गया

मेरा बचपन!

आइने के लिए...

आइना देखता हूँ 
तो आइना हो जाता हूँ मैं...

देखता हूँ
एक से ही दो चेहरे
आइने के अन्दर- बाहर,
दोनों के रंग एक से हैं,
एक सी ही लगती है 
दोनों की शक्सियत 

फिर से आँखों को लगता है
धोखा हुआ!

*

इस घर में मैं अकेला तो नहीं
एक आइना भी है

उस तरफ भी कोई रहता है!

*

मैं हँसता हूँ तो हँसता है ये
मेरे रोने पे रोता भी है

ये आइना है या हमदर्द कोई?

*

आज वो मुझसे रूठा सा था,
मेरे चेहरे को पढ़ भी न सका

जो मेरे रोने पे रोता था,
आज हंस पड़ा...

आइना भी आज इंसान नज़र आया!

चोर

जब ज़मीन भी बेगानी हो गयी
मेरे नस्ल के खाते से,

चावल के दाने से
हक भी छीन लिया उन्होंने
जिनके लिए
हम चावल उगाते थे,

मेरी बेटी का निवाला
जब पहुँच ना सका
उसके मुँह तक

तब,

मैंने उसके घर का रुख किया
जहाँ से सोचा था
खुशियाँ बीन कर लाऊंगा

जैसे ही अपने हक पर
हाथ रखा,
'चोर- चोर- चोर'
नाम रख दिया लोगों ने मेरा!

(नीलमा सरवर- पाकिस्तानी शायरा- के लिए)

कुछ ख़याल 2


कभी हिन्दू, तो कभी मुस्लिम 
कभी कम्युनिस्ट बनती रही

चौराहे की बत्ती धर्म बदलती रही!

*

वो कैसा तूफ़ान उठा था
मेरी पहचान भी उड़ा ले गया

क्या अब भी मुझे पहचानोगे?

*

बहुत उदास सा लगता है आजकल
मोहल्ले का वो बड़ा पुराना पेड़

पतझड़ में कुछ नए पत्ते गिर गए

*

एक सुहागिन की बिंदी है वो,
खोजती है अपने शौहर को

चौराहे की लाल बत्ती थी, बुझ गयी!

*

बंद हो जाएँगी धर्म की खोखली किताबें

जब लैला की मांग सिन्दूरी होगी,
जब किसन निकाह रचाएगा!

*

अब नहीं कोई दीवार सरहद पर,
टूट गयी दीवारें, गिर गए पत्थर

गिरी दीवारों के नीचे आवाम की लाश दबी है!

*

मैं भी इंसान समझता हूँ खुद को,
तुम भी अपने आप को इंसान कह लो

ये खुशफ़हमी बहुत लोगों को है आजकल!

*

दंगे

मेरे खुदा का मिजाज़
बिगड़ा हुआ है,
लड़ता रहता है आजकल
तुम्हारे भगवान् से


हम जिसे परवरदिगार समझते थे,
वो भी इंसान निकला!

मेरा धर्म

अगर तुम मुसलमान से नफरत करते हो,
तो मैं मुसलमान हूँ

अगर नफरत है तुम्हे हिन्दू से,
तो हिन्दू हूँ मैं

नहीं पसंद अगर कोई सिख,
तो सिख समझना

इसाई या ज्यूू
समझ लेना मुझे अपनी समझ से

क्योंकि तुम इंसान से नफरत करते हो,
और इंसान हूँ मैं

माँ

माँ..
अब भी तुम्हारी हाथ पकड़ कर
सोने का मन करता है,
अब भी तुम्हारी डांट-डपट
सुनने का मन करता है,
मन करता है
तुम्हारे साए में सोता रहूँ,
फिर से दो साल का
"छोटू" बन जाने का मन करता है...

तुमसे छिप कर क्रिकेट खेलने जाता था,
तुम पीछे पीछे आती थी बुलाने मुझे
चाहता हूँ फिर से तुम मुझे बुलाने आओ,
भाग कर क्रिकेट खेलने का मन करता है

बहुत मुश्किल से समझ आती है
मुझे किताबों की भाषा,
तुम्हारे मुँह से लोरी सुनने का मन करता है

थक चुका है
मेरा ये कद बढ़कर,
तुम्हारी गोद में सामने का मन करता है...

तुम एक कविता हो

तुम बस एक कविता हो
जो लिखी हुई है
आसमान में
बादलों के पीछे कहीं...

हर रोज़
सूरज के साथ जगता हूँ मैं
तुम्हे पढने के के लिए,
शाम होती है
तुम्हारे ही अल्फाजों
को देखते हुए...

हर रात
चाँद एक नयी नज़्म बुनता है तुम पर,
आसमान से तारें चुन कर
सजाता है नज़्म...

सुबह होती है,
फिर से देखता हूँ
पूरी काएनात तुम्हारी
पलकों पर...
एक ही बार में!

चाँद- सूरज ने
बहुत मेहनत कर ली,
आओ, अब हम दोनों
बैठ कर बातें करें!