ना आया वो वक़्त

वो वक़्त जिसका कि वादा था
तुम्हारी बातों में
वो वक़्त जिसका कि ज़िक्र था
तुम्हारी अज़ानों में
वो वक़्त जिसके लिए लड़े थे
वो वक़्त जिसके लिए मरे थे
वो वक़्त जिसका था इंतज़ार
"आएगी सुबह"- था ऐतबार
ना आया वो वक़्त

तुम आये, वो आये, ये आये
ना आया वो वक़्त

हम बैठे हैं किनारे
थामे हाथ हम सारे
कि धर दबोचेंगे
कि पकड़ खाएंगे
कि गोश्त बनाएंगे
कि खा ही जायेंगे
जिस्म जो भूखा
जिस्म का भूखा
दाँतों को लगा
ख़ून का चस्का

अँधेरी रात में जन्मे
नंगे-अधनंगे
लोमड़ी के बच्चे

वक़्त को आने दो
वक़्त के साथ आने दो
उसके साथ की उम्मीद
के जिसका तंदूर बनाएंगे
हम ही इंसान कहलायेंगे

(ऐसे ही है)
(ऐसा ही है)

-13.11.2016

धूप में काम करती औरतें

धूप में काम करती औरतें
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धूप में काम करती औरतें
आपस में बात करती हैं,
तो ठीक लगता है

दूर से लगता है कि
सब बढ़िया होगा
पास कभी जा भी नहीं पाते,
तो ठीक लगता है

आपस में बात करते हुए
वो भूल जाती हैं काम का दर्द
(भूलना ज़रूरी भी है)
वो भूल जाती हैं
घर पर बढ़ता क़र्ज़
(भूलना ज़रूरी भी है)
वो भूल जाती हैं बच्चे
के स्कूल के फीस
जमा करने की तारीख -
भूलना ज़रूरी भी है
वरना आपस में बात करते हुए
चुटकुले नहीं सुनायेंगी
एक-दूसरे को,
हँसेगी नहीं

-हँसना बहुत ज़रूरी है
दोपहर के वक़्त सड़क पर
काम करते हुए-
ईंट उठाते हुए
पत्थर तोड़ते हुए

धूप में काम करतीे औरतें
मासूम लगती हैं-
क्योंकि मैं एक मर्द हूँ
और
सड़क पर
धूप में
कभी भी काम नहीं किया।

मैं रिक्शे पर बैठा सोचता हूँ

दोनों साथ ही
चल रहे हैं
फिर भी साथ नहीं हैं

दोनों को
एक ही हवा लगती है
लेकिन फिर भी
हवा एक नहीं है

हम दोनों के हिस्से
की दुनिया बँटी हुयी है
और हमें ये पता भी नहीं

हम पूरी दुनिया को
अपना ही मान कर चल रहे हैं
और अपने अपने हिस्से
के दुःख को
सबका दुःख मान कर
दुःखी भी नहीं हैं

इतने अजीब हैं हम
या फिर इतने
मस्त हैं हम

-23.9.2016

जब भी दिल उदास होता है

जब भी दिल उदास होता है
एक दोस्त मेरे पास होता है

यूँ तो कमाया कुछ नहीं हमने
खर्च करने को जहान होता है

छोटे घरों में रहना पसंद नहीं
सर पर हमारे आसमान होता है

थक जाते हैं जब चलते चलते
तेरी छाँव में मकान होता है

16.8.2016

यायावर

ज़मीन पर टूटे शीशे पड़े थे। रास्तों पर कोई चलता नहीं था। और एक वो जो दौड़ कर पार गया पागल था सबके लिए- और अपने लिए आदर्श।

मेरी कहानियों में मौजूद हैं अनगिनत पागल। मैं बचपन से पागलों के बहुत क़रीब रहा हूँ। और इन पागलों को अपना भी लगता हूँ। लेकिन मैं बॉर्डरलाइन पागल ही बना रहा। बहुत कोशिश भी की कि पूरा पागल बन जाऊँ। अब कोफ़्त होती है ऐसे लोगों से जो ख़ुद को पागल कहते हैं, यायावर कहते हैं। बहुत मुश्किल है साथी। सबकुछ खोने की शर्त है, और पाने को बस खुला आसमान।

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सफ़र मुश्किल है साथी
नहीं आसान यायावरी
खोने को सबकुछ है
और पाने को खुला आसमान

सफ़र मुश्किल है साथी
छोड़ना दुनियावी माया
और पाना शून्य
नहीं सबके बस की

कविता करना बिना मतलब
-कि जान लेना नहीं आएगी
कोई क्रांति
सब क्रांतिवीर फँसे हैं
आलू और प्याज़ ख़रीदने में

और जो बचा है
वो पागल कवि
छंद के आकार में फँसा है

सफ़र मुश्किल है साथी
लेकिन चलो चलते हैं
कि कुछ दूर ही है जूपिटर
- और वहाँ बैठे पागल
इंतज़ार कर रहे हैं।

8.8.2016

जब जाल समेटूँगा

मैं
अपना जाल समेट
चला जाऊँगा कहीं

कहाँ-
पता नहीं

पता है लेकिन
वहाँ नहीं होगी
भाग-दौड़ कोई
मैं दौड़ूंगा सिर्फ
तितलियों के पीछे

मैं कोई तिलिस्म
पैदा करूँगा
और बन जाऊँगा
चिड़िया
-बैंगनी परों वाली

मैं जाल समेटूँगा
और रख लूँगा
पास अपने
ज़रूरी सामान कुछ
-वो डायरी,
जिसमें तुम्हारा फूल है एक
-वो पल,
जिसमें हँसी हो तुम
-वो रात,
जब हम खामोश ही रहे

सुनो,
मैं जब
जाल समेट रहा होऊँगा,
तब मेरे जाल में
फँस जाना तुम।

22.6.16

कदम दर कदम रिश्ते तोड़ते गए

कदम दर कदम रिश्ते तोड़ते गए
हम ऐसे अपने सामान छोड़ते गए

आस पास हैं सभी, फिर भी नहीं कोई
हम अपने सारे भरम यूँ तोड़ते गए

ज़िन्दगी तू यूँ ही है या मतलब है तेरा
हर जवाब में ये सवाल खोजते गए

15.6.16

तमाशा देखूँ कब तक सड़क पर, मैं घर में हूँ

तमाशा देखूँ कब तक सड़क पर, मैं घर में हूँ
दुनिया जल रही है, लेकिन अब मैं घर में हूँ

बचाने को बहुत कुछ था, और सब खो दिया
मैं बेवकूफ़ तो था, लेकिन अब मैं घर में हूँ

जंगलों में, वीरान रास्तों पर, हर गली, हर मोड़ पर
तुम्हें चलना था साथ मेरे, लेकिन अब मैं घर में हूँ

मशालें लेकर निकले थे सब, आ गयी क्रांति भी
खो गया नन्हा वो साथी, और अब मैं घर में हूँ

12.6.16

अधूरापन

मैं पूरा का पूरा
हूँ अधूरा
और तुम भी
अधूरे

एक दूसरे
से अलग सोचते
एक दूसरे
से अलग चल रहे

ख्वाब अलग
राह अलग
मंज़िलें भी अलग

दूर हो जाते हैं
चलो, हम खो जाते हैं

फिर आसमान में
जब कभी मिलेंगे,
अपनी नादानियों पर
मुस्कुराएंगे

और खेलेंगे वो खेल
जो रह गया अधूरा,
मेरे और तुम्हारे
अधूरेपन में।

11.6.2016

ना ये हुआ, ना वो हुआ

ना ये हुआ, ना वो हुआ
चलो जो हुआ, सो हुआ

हिरण भागे कस्तूरी पीछे
ना मिले, तो क्या हुआ

दिया लड़े जलने को हरदम
बुझ गया, तो बुझ गया

बने तुम दुश्मन, ठीक है
हमने तो माँगी ख़ैर दुआ

गया दूर, खोजा ख़ुद को
मैं खो गया, तो खो गया

12.10.15

अब कविता नहीं कह पाता

वो अब कविता नहीं कह पाता
भूल चुका है कहना कहानियाँ वो
नज़्म और ग़ज़ल चुरा लिए गए
अब कुछ भी नहीं है उसके पास

अब उसके पैर आवारा नहीं रहे
सोच समझ कर चलते हैं
उँगलियाँ यूँ ही नहीं कुछ भी बोल देती हैं
-समझदार हो गए हैं सभी

अब नहीं बादलों के पास जाता वो
जूपिटर से नाता टूट चुका है
उड़ता नहीं, सिर्फ़ चलता है अब

लेकिन एक चिड़िया
जो बचपन में उड़ कर आयी थी
कहीं से-
बैठ गयी थी उसके कंधों पर
लाख बोलने पर भी नहीं जाती वो
-आज भी वहीं बैठी है
उसके कंधों पर

अब शायद वो उसे उड़ा ले जाएगी
हमेशा के लिए...

6.10.15

हम क्यों मिले?

हम नहीं मिलते
और नहीं होता कोई खेल

ना कोई तमाशा
ना दुनियादारी कोई

ना तुम रूठते
ना मैं मनाता
ठंडी रातों में
लम्बे रास्तों पर
ना कोई जाता

बेमतलब शामों में
नहीं पकड़ते हाथ
और देखते शहर को
एक नए कोने से

नहीं लिखता बेकार कवितायें
गाजर के हलवे और मूँगफली पर
-जो हमने साथ खाए थे

नहीं आते एक-दूसरे
के सपनों में-
नींदें बर्बाद नहीं होती

-लेकिन हम मिले
और जीना सीख लिया

22.1.16

हम कहीं खो जाते हैं

उड़ना और चहकना
चहक कर उड़ जाना

खोना और पाना
पा कर खो जाना


अद्भुत है मिलना
आश्चर्य का होना

नया सब है
और सब पुराना

फुर्र फुर्र उड़ना
चर्र चर्र चलना

एक गीत सुनना
एक गीत सुनाना

अशब्द में सबकुछ कहना...
और तुम्हारा मुझे समझना

चलो चुप हो जाते हैं
हम कहीं खो जाते हैं।

-9.1.2016