कभी हिन्दू, तो कभी मुस्लिम
कभी कम्युनिस्ट बनती रही
चौराहे की बत्ती धर्म बदलती रही!
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वो कैसा तूफ़ान उठा था
मेरी पहचान भी उड़ा ले गया
क्या अब भी मुझे पहचानोगे?
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बहुत उदास सा लगता है आजकल
मोहल्ले का वो बड़ा पुराना पेड़
पतझड़ में कुछ नए पत्ते गिर गए
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एक सुहागिन की बिंदी है वो,
खोजती है अपने शौहर को
चौराहे की लाल बत्ती थी, बुझ गयी!
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बंद हो जाएँगी धर्म की खोखली किताबें
जब लैला की मांग सिन्दूरी होगी,
जब किसन निकाह रचाएगा!
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अब नहीं कोई दीवार सरहद पर,
टूट गयी दीवारें, गिर गए पत्थर
गिरी दीवारों के नीचे आवाम की लाश दबी है!
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मैं भी इंसान समझता हूँ खुद को,
तुम भी अपने आप को इंसान कह लो
ये खुशफ़हमी बहुत लोगों को है आजकल!
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