कभी कभार सोचता हूँ
वक़्त को जकड़ लूँ
मुट्ठी में ...
कमबख्त, निकल जाती है
हाथों से
हवा के माफ़िक!
*
हर ज़ख्म तुमने ही दिया
हर दर्द का रिश्ता है तुमसे
तुम यूँ तो हमदर्द नज़र आते हो!
*
बस एक ग़ुबार सा उठा है अभी
रात के अँधेरे में दिखता भी नहीं
दिख तो जायेगा ज़रूर कविता में !
*
बहुत दिन हुए
लबों पर मुस्कुराहट आयी नहीं
कुछ ऐसा करते हैं ...
हँसते हैं!
*
क्यों ना ऐसा करूँ मैं ,
तुम्हें याद कर लूँ ...
दो पल के लिए साथ तो होंगे हम
*
अब सोचता हूँ
दीवारों को दोस्त बना लूँ ...
कभी तो रिहा करेंगे मुझे !
*
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