कुछ ख्याल 1

कभी कभार सोचता हूँ 
वक़्त को जकड़ लूँ
मुट्ठी में ...

कमबख्त, निकल जाती है 
हाथों से 
हवा के माफ़िक!

*

हर ज़ख्म तुमने ही दिया 
हर दर्द का रिश्ता है तुमसे 

तुम यूँ तो हमदर्द नज़र आते हो!

*

बस एक ग़ुबार सा उठा है अभी
रात के अँधेरे में दिखता भी नहीं

दिख तो जायेगा ज़रूर कविता में !

*

बहुत दिन हुए
लबों पर मुस्कुराहट आयी नहीं 
कुछ ऐसा करते हैं ...

हँसते हैं!

*

क्यों ना ऐसा करूँ मैं ,
तुम्हें याद कर लूँ ...

दो पल के लिए साथ तो होंगे हम

*

अब सोचता हूँ 
दीवारों को दोस्त बना लूँ ...

कभी तो रिहा करेंगे मुझे !

*

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