कविता बुलाती है मुझे

कविता बुलाती है मुझे

वो गूंगी
किसी पन्ने के पीछे बैठ
इशारों में करती है बातें
मैं
सुनता हूँ उसे

जीवन अपनी गति से
बढ़ती है
मैं जीवन से भी तेज़ चलता हूँ
-कविता छूट जाती है पीछे

आवाज़ देकर
कविता बुलाती है मुझे

मैं अब नहीं समझ पाता
उसकी बातें
(मैं उपन्यास को समझता हूँ)
वो कमसमझ भी है

लेकिन जब कभी रुक कर
उस गूंगी को सुनता हूँ
तो
ठीक लगता है

तो
लगता है कि
जीवन जीना आसान सिर्फ इसलिए है
कि उसमें कविता रहती है

10.9.17

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