रात

शहर के तंग गलियारों में
रात के अँधेरे में
फूटपाथ पर-
उम्मीदों को जलते देखा है?
लाशों को चलते देखा है?
देखा है ठंड से सिकुड़ते रूह को?
देखा है लड़ते-झगड़ते जिस्म को?

सुनाई देती है गूँज ख़ामोशी की
मरने की बेबसी चीखती है
चिल्लाती है दिल की धड़कने
सुन्न कर देती है रूह को-
जब भेदती हैं सर्द हवाएँ
माँस के गर्म लोथरों को,
ज़िन्दगी प्यासी ही रह जाती है-
घाव से रिसते मवाद को
किसी की प्यास बुझाते देखा है?

लाशों के अंबार लगे होते हैं-
लाशें पड़ी रहती हैं
मक्खियाँ भिनभिनाती हैं
लाशों के ऊपर
ज़मीन लाल हो जाती है खून से,
और फिर लाशें पीती हैं खून
प्यास बुझाने के लिए

कभी सुना है-
सन्नाटे को काटती
सिसकती
रोती
चीखती
चिल्लाती
बेबस
आसुओं में सनी
जिस्म की पुकार?

तुम्हें सुनाई नहीं देगा
तुम्हें दिखाई नहीं देगा
तुम भी एक लाश हो!

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