मुलाकातों का सिलसिला

ये क्या तरीका है मिलने का?
सलीका ये क्या है मिलने का?

चेहरे पर एक शिकन सी आ जाती है-
पुराने किसी लम्हे को याद करके
चुप हो जाते हो,
अपनी जुबां से फिसलते नादाँ लफ़्ज़ों को
पकड़ लेते हो,
जकड़ लेते हो हौले से

जो पहले मिलते थे
तो यूँ तो न मिलते थे
बेतकल्लुफ तो बातें करते थे हम 
अब जो मुलाक़ात करते हो
तो बहुत तकल्लुफ्शुदा हो गए हो
एक बड़प्पन सा आ गया है तुम्हारी बातों में
जो कमाया होगा तुमने
दुनिया के बाज़ार में-
मैं तो बाज़ार का हिस्सा न था!

वो जो अल्हड़पन था पास तुम्हारे, भूल चुके हो,
ख़ामोशी को अलग एक मतलब दे चुके हो
दुनियादारी की समझ तो होगी तुम्हे, मानता हूँ,
वो जो हमारी छोटी सी दुनिया थी, खो चुके हो

ऐसा करते हैं,
ये जो मुलाकातों का सिलसिला है
खत्म करते हैं

अब,
जब जी चाहे आ जाना मिलने मेरे ख़्वाबों में
मिलेंगे वैसे,जैसे मिलते थे नादाँ बरसातों में....

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