ग़ालिब मिला था

...और,
आज फिर
ग़ालिब मिला!

हमेशा की तरह
ज़िंदगी से मोहब्बत
करता हुआ-
उलझनों से
घिरा हुआ,
उलझनों से
लड़ता भी,
उलझनों का
मजाक भी उड़ाता,
आज फिर
ग़ालिब मिला!

दायें हाथ में
प्याला लिए
एक नज़्म सुना रहा था मुझे,
हमेशा की तरह

मेरी आँखों में
देख कर
फिर बोल पड़ा,
"हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी
कि हर ख्वाहिश पे दम निकले"

सालों पुराना ये सिलसिला
दुहरा गया

सालों से मैं चुप रहा

आज बोल पड़ा,
"उस एक ख्वाब का क्या,
जिसकी खातिर उम्र भर
की नींद गिरवी रख आया हूँ?"

ग़ालिब मुस्कुरा रहा था...

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