जो तुम मिल सकते हो बचपने के साथ तो कहो

जो तुम मिल सकते हो बचपने के साथ तो कहो
हमें दिक्कत है बड़प्पन से, बात समझो तो कहो

तुम देखो शक की निगाहों से औ’ देखूँ मैं तुम्हें
ये रिवाज़ कैसे निभाऊं मैं, कुछ और हो तो कहो

मैं तलबगार दोस्ती का तुम रिश्ते निभाते पैसों से
साथ रहना हो तो तुम बदलो, जो ना हो तो कहो

कैसे कह दूँ कि मैं खुश हूँ अजनबी से माहौल में
मुझे जंगलों-पहाड़ों में रहना, चलना हो तो कहो

तुम देखते नहीं जो विपदा वो देखता हूँ मैं हमेशा
“रिश्ते ज़ब्त-सपने ज़ब्त”; तुम्हें देखना हो तो कहो

~~~
“अब लगता नहीं कि अपना बसेरा है इस गली
चलो ना,चलते हैं वहाँ जहाँ मोहब्बत हर डली”
~~~

1 टिप्पणी: